बिल्ली विश्वविद्यालय(15)

एक फूँक जादू की ..
सपनों से सतरंगी,
हवाओं के पंख लगा,
चारों ओर उड़ने लगे
बुलबुले साबुन के।

बिल्लियाँ बौराई सी
पकड़ने को दौड़ पड़ीं
पर फट से फूट गए
हवाओं के गुब्बारे,
घुल गए हवाओं में
और मानो जादू हो,
यूँ गायब हो गए
जैसे कभी थे ही नहीं।

उतनी ही जान थी
उतने से लम्हों की।
साबुन के बुलबुले का
जितना हो सकता था,
उतना सा ही था
उन पलों का विस्तार।

बिल्लियाँ भी मुँह मोड़
नर्म-गर्म कोना देख
कुछ ऐसे सो गईं,
जैसे कुछ हुआ ही नहीं।
जैसे कुछ था ही नहीं।

बस पीछे छूट गया
एक अदृश्य खालीपन
जैसे कुछ खोया हो,
और ज़रा सा गीलापन
जैसे कोई रोया हो।

स्वाती

2 thoughts on “बिल्ली विश्वविद्यालय(15)

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  1. और छुट गया एक गीलापन, जैसे कोई रोया हो… बहुत खूब 🙏🏻👌

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