ये बिल्लियाँ ना जाने दुनियाँ
के किस कोने से,जाने कब
इस देश में लाई गईं।
यहीं जन्मी,पली,बढ़ीं,
पीढ़ियों रहीं इंसानी घरों में।
इन्होंने देखा ही नहीं
जंगल,मैदान,
खुला आकाश!
लेकिन पेड़ दिखते ही
जाने कैसे जान लेती हैं
कि कैसे चढ़ना है।
रोज कटोरे में
परोसा हुआ कॅट फूड
खाने वाली बिल्लियाँ
दिन में कई बार,
करती हैं नाखूनों पे धार,
और मुंडेर पर बैठे
पंछी का,कर लेती हैं
पलक झपकते शिकार।
तब अहसास होता है
कि नैसर्गिक प्रवृत्तियाँ
गहरे कहीं रची बसी हैं
उनके गुणसूत्रों में,
जिन्होंने उठा रखी है
जिम्मेदारी उनके
बिल्लीपन की।
कहते हैं कि गुफाओं में
रहने वाले मेरे आदि पुरखे
बहुत अलग थे मुझसे!
छोटी सी टेकडी पर
दस कदम चल कर,
धूप से बेज़ार मैं
हाँफती खड़ी सोचती हूँ
कि मेरी नैसर्गिक प्रवृतियों
की पोटली कहाँ,कब,कैसे और
क्यों खो दी मेरे गुणसूत्रों ने ???
स्वाती
Soo true
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