जेरूसलम डायरी-1

जेरूसलम की संकरी गली में

सामानों और लोगों से ठसाठस भरे बाज़ार के बीच

एक मोड़ पर रुक कर उसने उँगली दिखाई।

यहीं, इसी जगह पर गिरा था मसीहा।

बोझ जब हद से अधिक बढ़ गया,

ज़ख्म रिसने लगे, पैर लडखडाने लगे।

यहीं, इसी जगह गिरा था मसीहा।

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दुकानदारों और खरीददारों की भीड़ में

रौशनियों और चहल-पहल के बीच…

रोज की तरह वो अपना काम कर रहा था।

जो सैकडों दफा सैलानियों को बता चुका था

वही कहानी फिर से कह रहा था।

वहाँ उस पाँचवे पड़ाव पर

जब सैनिकों का सब्र छूटने लगा

उन्होनें भीड़ में खडे एक बेखबर तमाशाई के,

सायमन के कंधे पर रख दिया था सलीब।

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उस छोटे से चर्च में सामने

बडी सी सफेद प्रतिमा थी ईश्वर के पुत्र की।

छत,दरवाजे सब पर काटों की सजावट थी।

अचानक उस युवा गाईड ने

ऊपर पीछे कहीं लगी

एक तस्वीर की तरफ उँगली दिखाई।

बस कभी कभी कोई सायमन मिल जाता है

जो थोड़ी देर कुछ बोझ बाँट लेता है वरना,

सबको खुद ही उठाने पड़ते हैं

अपने अपने सलीब अपने ही कंधों पर।

और उस एक ही पल में अचानक

बदल गया मेरा नज़रिया।

जेरूसलम के भरे बाज़ार में मुझे भीड़ में

अपने ही जैसे इंसान नज़र आने लगे।

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अलग अलग पहचानें, रंग-रूप,खान-पान

धर्म और देशों के लोगों के इस हुजूम में

हर कोई एक अकेला इंसान है

हर चेहरे पर वही दर्द के निशान हैं

हर एक कंधा झुका हुआ है

अपने ही सलीब के बोझ से।

                  स्वाती

          

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