कितनी बार

कह रहे हैं किसलिए, लिखना है किस की खातिर
दास्तां अपनी ही अपने को सुनाई फिर फिर ।

दूसरे तो एक बहाना थे महज़
लिख के अपनी बात खुद को ही बताई फिर फिर।

कितने झगड़े खुद से हर इक बात पर
खुद की खुद से दिलजमाई फिर फिर।

एक दो चोटों से कब आई समझ
ठोकरें उसी पत्थर से खाईं फिर फिर।

कुछ नया होता नहीं है इन दिनों
जो जी चुके उसकी घिसाई फिर फिर।

वो ही सागर, वो ही तुफां, कश्ती वही
अपनी किस्मत आज़माई फिर फिर।

वो न समझा था ना समझेगा कभी
बात वो ही दोहराई फिर फिर।

सारे झुठे है यहां किसको चुनें
राहज़नों की रहनुमाई फिर फिर।
(राहज़न-लुटेरा,रहनुमाई-नेतृत्व)
जख्म सारे ज़िन्दगी भरती रही
हमने खुद ही चोट खाई फिर फिर।

वक़्त के सैलाब में सब बह गया
खोए शहरों की खुदाई फिर फिर।

शायरी तो एक ज़रिया थी जनाब
धार ज़हन की आज़माई फिर फिर।


3 thoughts on “कितनी बार

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  1. अति सुंदर. बहुत ही बढिया।nice & very natural flow of language.

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