काश !

काश !
पहनी जा सकतीं
कविताएँ और कहानियाँ
लिबासों की तरह..
खूबसूरत लफ़्ज़ों की
रंगीन कमीजें होती
बेलबूटों की तरह
बुने होते जिसमें किरदार
अलग अलग पोत के
बदलती दुप्पट्टे हर दिन
रोज़ एक नई कहानी पहन
खुद भी बदल जाती मैं।
फिर कोई कविता मेरा
जिस्म ही बन जाती कभी
और तुम कहती कि
मुझपे वो जँचती है
लफ्ज़ औरों के सही
मेरी ही बात लगती है।

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