जाने भी दो

एक ख्याल था जो  शाम से
ज़हन में चल रहा था
बड़ी बेसब्री से कविता
बनने को मचल रहा था
सोचा था कि बस घर
पहुंचते ही लिख डालूंगी
हाथों से छूट जाए इसके
पहले किसी शक्ल में ढालूंगी
घर पहुंचते ही शुरू हो गया
कपड़े, बर्तन, खाने का फेर
और कविता बेचारी हो गई
दरवाजे के बाहर ही ढेर।
लाख कोशिशों पर भी
वो फिर नहीं सजी।
चलो छोड़ो, गाजर की
पुंगी थी, नही बजी।
            स्वाती

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