दोस्ताना


दिल का एक कोना होता है, जो सिर्फ जानवरों के लिए ही आरक्षित होता है।

वो जगह दुनिया की कोई भी चीज़ या इंसान नहीं ले सकते। वह जगह सिर्फ और सिर्फ प्राणियों की ही होती है।

कितने बदनसीब हैं वो लोग, जिन्होंने कभी कोई पक्षी या प्राणी नहीं पाला और ये मान कर चलते हैं कि उन्हें पसंद ही नहीं, उन्हें घिन आती है या डर लगता है ।

उनके मन का वह कोना खाली ही रह जाता है। अपने पूर्वाग्रहों के कारण वे खुद को एक अवसर भी नहीं दे पाते।

अपनी छवि के गुलाम ये लोग जब बड़े रौब से ये ऐलान करते हैं कि

“मैं या कुत्ता,बिल्ली। इस घर में एक ही कोई रहेगा। चुन लो तुम्हें क्या चाहिए।”

तब वे ये नहीं समझते कि इस तरह वे दुसरों को सिर्फ इमोशनली ब्लॅकमेल ही नहीं कर रहे,बल्कि खुद को भी एक बहुत मासूम सी खुशी से वंचित रख रहे हैं।

महरूम ए हकीकत हैं साहिल के तमाशाई,
हम डूब के समझे हैं,दरियाओं की गहराई।

सच में प्राणियों से प्रेम करना और बदले में उनका प्यार पाना एक ऐसा नशा है, जिसका जादू सर चढ़ कर बोलता है। उस समुंदर में गोता लगाए बिना उसके मज़े को नहीं समझा जा सकता।

हर प्राणि का अपना अलग ही व्यक्तित्व,अपना बिल्कुल अलग स्वभाव होता है। कोई भी दो कुत्ते,बिल्लियाँ या पक्षी एक से नहीं होते, तो ये कहना भी बेमानी है कि देख लिया एक बार कुत्ता पाल कर। बस अब नहीं!

एक परिचित सर्प उद्यान में काम करते हैं। उनका कहना है कि कोई दो साँप तक एक जैसे स्वभाव के नहीं होते। कोई एक कोबरा भी एकदम शांत स्वभाव का होता है तो कोई दूसरा बेहद गुस्सैल।

तो हर बार यह एक पूरी तरह से नया अनुभव है।

हर वह व्यक्ति जिसे प्राणि-पक्षियों से प्रेम है, उसके पास अपने इन मित्रों की ढेरों कहानियाँ होती हैं। उसका मज़ा  सिर्फ वही ले सकता है जो इस प्रेम की उत्कटता को समझता है।

बचपन में एक कुत्ते की कहानी सुन कर हम हँस-हँस कर लोट पोट हो जाते थे।

उस जमाने में औरतें चोटी में परांदा लगाती थीं। इन महाशय को परांदे के रंग बिरंगे गोंडे बहुत आकर्षित करते। जहाँ सामने से कोई सुंदरी अपनी लम्बी चोटी लहराती हुई निकली कि ये छोटा सा कुत्ता दौड़ कर उसका गोंडा पकड़ कर लटक जाता।

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फिर जो तमाशा होता उसकी तो कल्पना ही की जा सकती है। लड़कियों ने उस मुहल्ले से गुजरना ही बंद कर दिया था।

मैं खुशनसीब हूँ कि मेरी ज़िंदगी में बचपन से हमेशा ही कोई ना कोई जानवर आता जाता रहा है।
ये किस्से मेरे उन्हीं प्रिय दोस्तों की यादें हैं जो हमेशा के लिए मेरे दिल में ही रहते हैं।

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 मोती

मेरे पैदा होने से बहुत पहले, जब मेरे पप्पा की शादी भी नहीं हुई थी, और वे भोपाल में अकेले रहते थे, तब रात को खाना खाने वे एक हॉटल में जाते थे। 
एक बार दिसम्बर की रात को खाना खाने जा रहे थे, तब सड़क के किनारे एक कुत्ते का छोटा सा पिल्ला अकेला ही रोता हुआ नज़र आया। कड़ाके की ठंड थी । वो बेचारा थर थर काँप रहा था। पप्पा ने उसे उठा कर अपनी कोट की जेब में रख लिया।
गरमाहट मिली तो बेचारे का रोना बंद हुआ। पप्पा ने अपने साथ उसे भी रोटी खिलाई। खाना खा कर जब घर लौटे तो मोती भी पीछे पीछे उनके साथ आ गया।
मोती इतना काला था कि रात के अंधेरे में अंधेरे से भी काला होने की वजह से दिख जाता था। पप्पा अकेले थे, तो मोती की परवरिश भी एक बॅचलर की तरह ही हुई थी। जब पप्पा भोपाल में होते उनके पीछे पीछे घूमता। हर जगह उनके साथ जाता।

जब वे कहीं बाहर जाते, तो उनके मन में भी यह विचार नहीं आता कि उसके खाने पीने का कुछ बंदोबस्त कर के जाना चाहिए।

मोती भी उनसे ऐसी कोई उम्मीद नहीं रखता था। वो पप्पा के सब मित्रों के घर जानता था। किसी के भी घर जा कर भौंकना शुरू कर देता। लोग समझ जाते कि पप्पा शहर में नहीं हैं । कभी प्यार से तो कभी उसके भौंकने से तंग आ कर उसे रोटी खिला देते। खा पी कर वापस सीधे घर आ जाता।

पप्पा को उसके इस तरह स्वावलंबी होने पर बेहद गर्व महसूस होता था। उनके खयाल से वे और मोती इकट्ठे रहते थे। किसी पर किसी को पालने की जिम्मेदारी नहीं थी। हर कोई अपना खयाल खुद रख सकता था।

लेकिन पप्पा की शादी के बाद परिस्थिती बदल गई। हमारी माँ पप्पा के एकदम विरुद्ध थी। वो मोती का अपने बच्चे की तरह खयाल रखने लगी, तो मोती को भी अपनी जिम्मेदारी का एहसास हुआ।

पप्पा की अनुपस्थिती में माँ की सुरक्षा उसका कर्तव्य बन गई। रात में भी वह घर के बाहर ही बैठ कर पहरेदारी करता।

फिर जब हम पैदा हुए तब तक मोती लगभग बूढ़ा ही हो चुका था। हम घोड़े की तरह उसकी सवारी करते। उसने कभी ऐतराज नहीं किया। उसके भरोसे हमें छोड़ कर माँ आराम से अपना काम करती।

एक बार ठंड का मौसम था। पड़ौसियों के घर में एक छोटा सा सफेद कुत्ता था। उन्होंने उसके लिए एक लकड़ी का घर बना रखा था। रात को जब ठंड बहुत बढ़ जाती और बूढ़े मोती को सहन नहीं होती, तो वो पड़ौस मे जा कर उस बेचारे कुत्ते को उसके ही घर से बाहर खदेड़ देता और आराम से उसके घर में सो जाता। घर का मालिक रात भर ठंड में ठिठुरता रोता रहता। पड़ौसी बहुत नाराज होते।

एक बार जब रात को उनके कुत्ते ने अपने घर के बाहर बैठ कर रोना शुरू किया, तो वे इतने गुस्सा हो गये कि एक बड़ा सा डंडा ले कर आए और मोती के सिर पर दे मारा।

मोती वहीं ढेर हो गया।

उसकी मौत का पड़ौसी सहित सबको बेहद अफसोस हुआ।

उसके बाद कई प्राणी हमारी ज़िंदगी में आए,लेकिन मोती जितना cस्वावलंबी कोई नहीं था।

मॉन्टी

मेरा भाई सुबोध जब कुछ बड़ा हुआ तो उसके दिमाग में शायद प्राणी छोड़ कर दूसरा कोई विचार ही नहीं रहता था। वो इंसान के अलावा जो भी कुछ जीवित,हिलता-डुलता देखता, उसे घर लाना चाहता।

एक बार हम सर्कस देखने गये थे। वहाँ ‘हाथी चाहिए’ की जिद पकड़ कर, उसने रो रो कर सबको हैरान कर दिया था।

उसका यह जीव-जंतु प्रेम इतना विस्तारित था कि उसमें कुछ भी निषिद्ध नहीं था। वो हमारे दुपट्टों के जाल डाल कर मछलियाँ पकड़ता। अक्सर तो वे टेडपोल ही होते। लेकिन उन्हें भी वो बोतलों में संभालता। कभी कभी मछलियाँ भी मिल जाती। जो कुछ दिनों में आटे की गोलियाँ खा खा कर मर जातीं।

तितलियाँ तो हम सभी पकड़ते थे। तितलियों वाली हरी, बेहद मोटी इल्लियाँ किसी पुट्ठे के डिब्बे में मुफ्त की हरी पत्तियाँ खा खा कर मोटी होती रहतीं,और फिर एक दिन उनकी जगह कोई बदरंगा सा टिड्डा ले लेता। रंगबिरंगी सुंदर तितली की आस में बैठे हम लोग फिर भी निराश नहीं होते थे। नई इल्लियों की खोज में जुट जाते।कभी कभार खुबसूरत सी तितली निकल भी आती।

माचिस की डिब्बियों में भाई केंचुएँ और लाल मखमली इल्लियाँ संभालता। काँच की बोतलों में जुगनू पकड़ता। एक बार तो उसने एक छोटी बोतल भर कर पिस्सू (ticks) भी इकट्ठा किए थे।

एक बार न जाने कहाँ से दो कबूतर ले आया था, जो दो ही दिन में उड़ गये।

सबसे काबिल ए तारीफ बात यह है कि इस सारे पागलपन का हमारी माँ ने कभी भी कोई विरोध नहीं किया। जो भी कोई या जो भी कुछ घर में लाया जाता, उसे सम्हालने में वो हमारी पूरी मदद करतीं। उनकी बस यही कोशिश रहती कि किसी तरह से वह जो भी जीव जंतु है उसे जीवित रखा जाए।

फिर एक दिन हमारे घर एक खूबसूरत सा सफेद खरगोश आया।

जिसका नाम मॉन्टी रखा गया। 

हम सबका पूरा जीवन उसके चारों ओर घूमने लगा। जब हम स्कूल जाते तो उसे एक खोके में बंद कर जाते,क्योंकि गली के एक मोटे खतरनाक बिल्ले की नज़र उस पर थी । जो पहले लौटता उसे खोके से बाहर निकालता। हमारे साथ उससे खेलने के लिए दोस्तों की एक फौज आती। हमारे घर के पीछे एक बंद आँगन था, जिसके चारों ओर करीब दस फीट ऊँची दीवार थी। उस आँगन में मॉन्टी मजे में खेलता रहता।

कुछ महीनों में वह अच्छा खासा मोटा ताजा हो गया था।

एक शाम को मॉन्टी आँगन में खेल रहा था। हम लोग भी आस-पास ही थे। अचानक माँ को आँगन की दीवार पर वह खूँखार बिलोटा बैठा नजर आया। उन्होंने डाँट कर उसे भगाने की कोशिश की।

और अचानक कुछ समझ में आने से पहले एक छलाँग में वह मॉन्टी के ऊपर था। उसने मॉन्टी की गरदन पकड़ी।

मैने अपनी ज़िंदगी में पहली बार और शायद आखरी बार किसी खरगोश को चिल्लाते हुए सुना। मेरा खयाल था कि खरगोश गूँगे ही होते हैं। चीं...चीं...चीं... मॉन्टी चीखा।

बिल्ले ने इतने मोटे मॉन्टी को मूँह में दबा कर छलाँग लगाई और एक क्षण में वह दीवार के उपर लगभग पहूँच ही गया था।

बिल्ली की ताकत और चपलता का साक्षात प्रदर्शन था वह।

लेकिन उस बिल्ले को हमारी माँ की चपलता का अंदाज नहीं था। बिल्ले को कुछ समझ में आने से पहले माँ ने एक छलाँग लगाई और उनके हाथ में बिल्ले की पूँछ आ गई। बिल्ले को यह पूरी तरह अनपेक्षित था। उसने घबरा कर मूँह खोला और मॉन्टी छूट कर वहीं दीवार की मुंडेर पर गिरा। किसी के कुछ समझ में आने से पहले मॉन्टी माँ की गोद में था।

यह सब इतनी तेजी से हुआ कि मैं तो अपनी जगह से भी नहीं हिल पाई।

मॉन्टी बहुत ज्यादा घबरा गया था। थर थर काँप रहा था।

उसे डॉक्टर के पास ले जाया गया। कोई भी जख्म नहीं था। बिल्ली के दाँत भी उसके फर की वजह से गले तक नहीं पहूँचे थे। लेकिन आखिर खरगोश का कलेजा ही था। उसका  थर-थरना रुकने का नाम ही ना ले। फिर उसे शायद कुछ मॉरल सपोर्ट की ज़रूरत है, ये सोच कर उसे वापस उसके पहले घर, जहाँ उसके माँ-बाप, भाईबंद थे वहाँ ले जाया गया। उनके बीच भी उसका मानसिक आघात कम न हो सका। दो दिन बाद उसकी मृत्यु हो गई।

बहुत रोने धोने के बाद हमने उसकी एक शानदार कब्र बनाई।

और उसके बाद कभी खरगोश न पालने की कसम खाई।

			

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