ग़लतफ़हमी

       ना जाने कब ,किसने, बस यूँ ही कह दिया
कि ये जीवन क्षणभंगुर है ।
तब से इस बात पर सारी मानव जाति
आँख मूंद कर विश्वास करती चली आ रही है ।
अनगिनत पल, दिन, महीने, साल
जी- जी के घिस गए ।
जीते-जीते पुराने हो चुके लोग,
जर्जर अवस्था में ,इसी डर से जकड़े
जाने कब से, न जाने कब तक
बस सहमे से, घिसटते जा रहें हैं ।
 चिपके बैठे हैं किसी जोंक कि तरह
जीवन से इस कदर, के जीना ही भूल गए।
और जान बेचारी हैरान, परेशान
कब से होल्ड पर पड़ी इंतजार कर रही है
उस क्षण का,
जो शायद भंगुर हो ।
                      स्वाती

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