बाप रे बाप…८

जैसे तैसे गणित और विज्ञान लेकर पप्पा मॅट्रिक पास हो गये ।

पढ़ने के लिये बहुत समय नहीं मिलता था, और कोई खास रुचि भी नहीं थी।

उन्होंने सोचा कि इंटर में कॉमर्स ले लिया जाए, कम पढ़ना पड़ेगा।

और वैसे भी अब तक पढ़े विषयों में कुछ भी आता जाता नहीं था।

कॉमर्स लेने का एक विशेष कारण यह भी था, कि उसमें दो विषय ऐसे लिये जा सकते थे जिनमें सिर्फ प्रॅक्टिकल ही था, यानी पढ़ने की ज़रूरत ही नहीं ।

एक तो शॉर्टहॅन्ड और दूसरा टायपिंग। टायपिंग में खूब मज़ा आता और बहुत जल्दी अच्छी खासी स्पीड से टायपिंग करने लगे।

लेकिन शॉर्टहॅन्ड सीखना ये सोच कर ही बड़ा खराब लगता कि ये सीख कर किसी का स्टॅनो बनना पड़ेगा। इसलिये उसकी क्लास में फिर गोते मारते।

शॉर्टहॅन्ड टायपिंग मिला कर १०० मार्कस् का पेपर था। टायपिंग में ५० में से ४५ मिल गये लेकिन शॉर्टहॅन्ड में कुछ मिला ही नहीं। फिर भी दोनों मिला कर पास कर दिए गये।

अकाउन्टस् में सप्लिमेंट्री आई और जैसे-तैसे उसमें भी पास हो गये।

खुद के साथ-साथ दोनों बहनों की पढ़ाई भी जारी थी। तीनों का खाना ,कपड़ा, पढ़ाई वगैरह खर्चा काफी अधिक हो जाता था और उस हिसाब से आमदनी इतनी नहीं थी।

इंटर की फायनल की परीक्षा के पहले जब कॉलेज पहुँचे तो देखा कि उनका नाम बोर्ड पर defaulters की लिस्ट में लगा था।

फीस भरना बाकी था। लेकिन पास इतने पैसे नहीं थे।

काफी चिंता में पड़ गये। शाम को बाड़े पर घूम रहे थे, तब नाना मिल गये। छुट्टी पर आए थे। पप्पा ने चाय पीते समय उन्हें अपनी समस्या बताई।

इसके बाद जो घटना हुई, वह मैं बचपन से आज तक कई बार सुन चुकी हूँ, लेकिन आज भी मुझे उतना ही अचरज होता है , जितने पहली बार हुआ था।

पप्पा ने जब नाना को बताया, कि फीस ना भरने की वजह से उनका परीक्षा का एडमिट कार्ड नहीं आया है, और निश्चित अवधी में यदि पैसे ना भरे गये, तो वे इंटर की परीक्षा ही नहीं दे सकेंगे।

उस पर नाना ने पूछा ” तो अब क्या करने का सोचा है”

पप्पा भी यह सुन कर हैरान रह गये।

उन्होंने सोचा था कि नाना जेब से तुरंत पैसे निकाल कर देंगे। या कम से कम देने की बात तो करेंगे।

लेकिन उन्होंने पूछा “अब क्या करने का विचार किया है?”

पप्पा ने ही कभी एक बार ये शेर सुनाये थे।

“चाक दामन कभी सिया ही नहीं,

शिकवा कभी किया ही नहीं।

वो दे रहा था, मगर हिक़ारत से,

मैं भी खुद्दार था,लिया ही नहीं।

मेरे मौला तेरा कहना माना,

प्यास थी, पानी था, पिया ही नहीं

चाक दामन कभी सिया ही नहीं।

(चाक- फटा हुआ, शिकवा- complain करना, हिक़ारत-तिरस्कारपूर्वक, खुद्दार-स्वाभिमानी)

पप्पा में खुद्दारी बचपन से ही ज़रूरत से ज्यादा थी।

जब नाना ने खुद पैसे देने की बात नहीं की, तो वो भी क्यों मांगते।

कुछ सोचा, ना समझा। उंगली में एक सोने का छल्ला था, जो उनकी जनेऊ वाले दिन माँ ने पहनाया था। वह तब से उँगली में ही था। कभी उतारा ही नहीं था।

माँ की आखिरी निशानी थी।

हाथ उठा कर नाना को वही छल्ला दिखा कर कहा “अब तो इसे ही बेचना पड़ेगा।”

नाना ऐसे कैसे आदमी थे मैं आज तक नहीं समझ पाई हूँ।

उन्होंने कहा “तेरी माँ की निशानी है, बेचता क्यों है? ऐसा कर गिरवी रख दे। जब कभी पैसे होंगे तो वापस ले लेना।”

उसके बाद वे पप्पा को माधोगंज के एक सुनार के पास ले गये। लोगों के सामने वे पप्पा को वासूजी कहा करते थे।

सुनार से कहा ” वासू जी को सोने का छल्ला गिरवी रखना है। संभाल कर रखो और उन्हें जरूरत हो उतने पैसे दे दो।”

पप्पा ने बहुत भारी मन से वह छल्ला गिरवी रख कर पैसे लिये।

उस दिन उनका मन इतना उचट गया कि फिर कभी उन्होंने वह छल्ला वापस न लेने का निर्णय भी कर लिया।

ये घटना सुन कर हमें नाना पर बेहद गुस्सा आता है। लेकिन आश्चर्य की बात तो यह है कि पप्पा को उस समय उन पर शायद गुस्सा आया होगा, बुरा तो बहुत ही लगा था, लेकिन बाद में ना तो इस घटना का बहुत दुख रहा और ना ही नाना से उन्हें कोई नाराजगी रही।

दोनों के संबंध पहले जैसे ही बने रहे।

पप्पा का कहना है कि उस दिन उस छल्ले के बदले में उन्होंने जितने पैसे मांगे, उतने सुनार ने बिना कुछ बोले दे दिये। वे पैसे उसकी कीमत से कहीं बहुत अधिक थे।

और इस बात का उन्हें जब एहसास हुआ कि वो पैसे बाद में नाना ने ही चुकाए होंगे, तो उनकी नाराजगी नहीं रही।

इस सारी कथा पर मेरी आत्याओं (बूआओं) की प्रतिक्रिया काफी रोचक हो सकती थी, लेकिन छोटी शालू आत्या तो तब छोटी ही थी,और अब वो नहीं रही।

बड़ी मालू आत्या की इस पर एक ही प्रतिक्रिया है।

उनके हिसाब से उनके खानदान के सारे पुरुष पागलपन की हद तक जिद्दी हैं और उनकी इस तथाकथित खुद्दारी के परिणाम उनके साथ-साथ उनके परिवार को भी भुगतना पड़े हैं,इसका उन्हें या तो एहसास नहीं होता, या उनमें इतना दिमाग ही नहीं है।

पहले कभी मुझे लगता था कि घर के कर्ता पुरुष की मृत्यू से अधिक बड़ी विपदा किसी घर पर नहीं आ सकती। आर्थिक स्तर पर पूरा परिवार निराधार हो जाता है।

लेकिन पप्पा और उनकी बहनों को देखती हूँ, तो समझ में आता है कि स्त्री ही है जो सारे घर की धुरा सभी मोर्चों पर संभालती है।

उसके ना होने से सारे के सारे परिवार के आर्थिक ही नहीं सामाजिक, भावनिक और ना जाने कौन-कौन से पहलू  जिन्दगी भर के लिए बदल जाते हैं।

यदि पप्पा की आई जीवित रही होती, तो शायद आज सारा चित्र ही अलग होता।

पप्पा से उनके पिता के बारे में जितना सुना है,उसकी तुलना में माँ के बारे में उन्हें बहुत कम याद है।

शालू और मालू आत्या को तो कुछ भी याद नहीं।

बहुत साल पहले एक बार मैं काकी के साथ पप्पा की एक बूढ़ी मौसी, सोनू मावशी के घर गई थी। मुझे देख कर उन्होंने अत्यंत अफसोस से गरदन हिलाते हुए कहा था कि मनू जैसा रूप इसे भी नहीं मिला।

इधर उधर से और काकी से उनके बारे में बस इतना ही पता चला था, कि वे बेहद गोरी और ग्रे आँखों वाली,बड़ी सुस्वभावी और गुणी महिला थीं।

उनका स्वभाव नाना से पुर्णत: भिन्न था।

नाना की मेडिकल प्रॅक्टिस अच्छी खासी थी, और पैसों के सभी व्यवहार पूरी तरह से पप्पा की आई ही देखा करतीं थीं।

उनके दयालू स्वभाव के किस्से मशहूर हैं। उनकी सह्रदयता की वजह से कई परिवारों के चूल्हे जलते थे।

वे बहुत कम बोलती थीं और कभी किसी बात के लिए किसी से कोई बहस लगाने के चक्कर में नहीं पड़ती थीं। जो ठीक समझती बस कर डालतीं।

उनके बारे में मालू आत्या को बस इतना याद था, कि वो हाथी दाँत के कँघे इस्तेमाल करती थीं।

एक बार मुझे ग्वालियर के घर के कबाड़ वाले कमरे में हाथी दाँत का एक बड़ा सा टुकड़ा मिला था। काकी ने बताया था कि वह उनकी कंघियाँ बना कर बचा हुआ टुकड़ा था।

उसे मैनें आज भी संभाल कर रखा है।

लोग उन्हें देवी, लक्ष्मी वगैरह कहते थे। पप्पा को याद नहीं कि उन्हें कभी नाराज देखा हो।

पर फिर भी उनका बड़ा रौब था।

पप्पा कहते हैं कि वे हमेशा उन्हें दुखी ही लगती थीं। कहती कुछ नहीं थीं, लेकिन उनकी आँखे उदास ही दिखती थीं। शायद इतने बच्चों की मृत्यू इसका कारण रही होगी।

उनके जाने के बाद ये तीनों ही भाई बहन बेहद जिद्दी और अडियल हो गये।

पप्पा ने तो इतने बचपन से घर की जिम्मेदारी संभालना और सबके हिस्से के निर्णय लेना  शुरू किया कि किसी की सुनना उनके स्वभाव में ही नहीं रहा।

बहने इतनी छोटी थीं कि उनके बस में कुछ भी नहीं था। अच्छे दिनों की उनके मन में बस कुछ धुँधली सी यादें थीं।

सारी परिस्थितियों का जिम्मेदार वे नाना को ही मानती थीं। उनके मन में सदा के लिए सबके प्रति ही बहुत कड़वाहट, असंतोष और गुस्सा रहा।

पप्पा ने जाने कैसे सबको माफ कर दिया। सारे परिवार को, यहाँ तक की नाना को भी आखिरी वक्त अपनी ही जिम्मेदारी मान लिया। हमारी आई से शादी के बाद तो उनका पूरा जीवन ही बदल गया।

लेकिन बहनें ऐसा नहीं कर पाईं।

यदि उनकी माँ जीवित होती, तो शायद सब कुछ अलग होता।

मेरा ऐसा मानना है कि पप्पा की जबरदस्त विनोदबुद्धि ने उन्हें हमेशा संभाल लिया। बुरी से बुरी बात में भी हँसने की कोई वजह  ढूँढ लेना, अपनी नाकामियों पर, गलतियों पर भी हँस लेना कोई पप्पा से सीखे।

उनकी ज़िंदादिली ने ही उन्हें ज़िंदा रहने की ताकत दी।

तो फिर उस छल्ले को गिरवी रख कर मिले हुए पैसों से पप्पा ने फीस भरी और इंटर की परीक्षा दी।

उनके टेलर का काम अब काफी अच्छा चलने लगा था।

उसने अब अपनी खुद की भी एक मशीन खरीद ली थी।

सन्नुलाला ने जब देखा कि खाली चबूतरे पर टेलर बैठा कर पप्पा पैसे कमा रहें हैं, तो उसे भी लालच हो आया। उसने टेलर को अपने साथ काम करने का प्रलोभन दिया।

टेलर रोज झगड़े निकालने लगा। हर बहस के दौरान वो सन्नुलाला को बुला लाता। जो इस बात पर ज़ोर देता कि दर्जी का किस तरह शोषण किया जा रहा है।

इन सारे झगड़ों से तंग आ कर एक दिन पप्पा ने उस टेलर को हाथ पकड़ कर खींच कर अपनी मशीन पर से उठाया और भगा दिया।

तब पप्पा वक्त-ज़रूरत थोड़ी बहुत मारा मारी भी करते रहते थे ।

उनसे झगड़ा करने की ना बनिये की हिम्मत हुई ना टेलर की। लेकिन वो आमदनी बंद हो गई।

अब पप्पा ने अपना मोर्चा नाना के मेडिकल स्टोर की और मोड़ा। अस्पताल तो बंद था, लेकिन उन्होंने दवाओं के थोक विक्रेता से दवाईयाँ ला कर मेडिकल स्टोर में बेचना शुरू कर दिया।

उन दिनों शायद FDA के नियम इतने कड़क नहीं थे।

इधर एक और मुसीबत आ खड़ी हुई।

जिनके घर के नीचे काका की दुकान थी, उस वाकणकर परिवार में आपसी झगड़े शुरू हो गये। उनकी जायदाद का बँटवारा हुआ।

काका की दुकान किसी एक भाई के हिस्से में आई। वो चाहता था कि काका दुकान खाली कर दें।

यह सुन कर काका बहुत घबरा गये। वह तो हमेशा से उनकी ही दुकान थी। कभी तो वह घर भी उनका ही था, लेकिन घर बिकने के बाद भी दुकानें उनके ही पास रहीं थीं।

उसके सिवा उन्होंने कुछ किया ही नहीं था।

वसंता वाकणकर पप्पा का जिगरी दोस्त था। वैसे तो वे सारे भाई ही पप्पा के मित्र थे।

उनमें से किसी को भी तब उस दुकान की ज़रूरत नहीं थी। लेकिन उन्हें अपनी जगह वापस चाहिए थी। ताकि आगे जा कर कभी ज़रूरत पड़ने पर घर का वह हिस्सा बेचा जा सके।

पप्पा ने उन लोगों को समझाने की कोशिश की, कि जब तक काका काम कर रहें हैं उन्हें उसी जगह रहने दो। चाहे किराया लेना शुरू कर दो। जिस दिन वो काम बंद करेंगे, उस दिन सामान और फर्नीचर के साथ वो दुकान छोड़ देंगे। काका की तबीयत भी कुछ बहुत ठीक नहीं थी।

लेकिन वे नहीं माने। ये लोग भी दुकान छोड़ने को तैयार नहीं थे।

आखिर तंग आ कर उन्होंने इन पर मुकदमा दायर कर दिया।

अब समस्या यह थी कि इन्हें एक वकील की ज़रूरत तो थी,लेकिन उसकी फीस देने के लिए  पैसे ना तो काका के पास थे ना पप्पा के पास।

फिर घर के कुछ चांदी के बर्तन और सामान बिका, और एक अच्छा वकील तय किया गया।

कोर्ट घर से काफी दूर था।

जब मुकदमें की तारीख होती तो, पप्पा और वाकणकर भाई एक ही तांगे में बैठ कर साथ ही कोर्ट जाते। भाड़ा आधा-आधा कर लेते। वहाँ जा कर अलग अलग साइड में बैठते। लौटते समय फिर इकट्ठे ही कहीं लस्सी पीते और वापस आते।

इस सारे मुकदमें के दौरान और उसके बाद आज तक, इन दोनों परिवारों के आपसी प्रेम और घनिष्टता में ज़रा भी कमी नहीं आई है। यह कैसे संभव हो सका, ये समझ पाना भी आज के युग में असंभव ही है।

फैसला काका के पक्ष में हुआ था। कुछ वर्षों बाद जब काका की मृत्यु हुई, पप्पा ने दूसरे ही दिन जाकर वसंता काका को दुकान की चाभी सौंप दी। उस दुकान से उन्होंने एक बहुत छोटी सी हथौड़ी के सिवा कुछ भी नहीं लिया। इस हथौडी से मेरा भाई सुबोध बचपन में खिलौने की तरह खेला करता था।

जब मुकदमा चालू था, तब वह एक अतिरिक्त खर्चा और बढ़ गया था।

थियेटरों को किराए से पेट्रोमॅक्स देने का काम चल ही रहा था। लेकिन काका का काम थोड़ा ठंडा पड़ता जा रहा था। काकी हर समय पैसों के लिये तकाज़ा करती रहती। धीरे धीरे सारे घर की जिम्मेदारी पप्पा पर ही पड़ने लगी।

पप्पा ने सोचा कि परीक्षा का नतीजा आने में अभी बहुत देर है, तो कहीं दो महीने के लिये नौकरी ही कर लें।

नाना के एक मित्र गृहसचिव थे। पप्पा ने जा कर उनसे बात की।

यह वो जमाना था, जब सरकारी नौकरियों के लिये आसानी से लोग नहीं मिलते थे।

उन्होंने पप्पा से पूछा कि किस विभाग में काम करना है।

पप्पा को किसी भी विभाग के बारे में जानकारी नहीं थी। उन्होंने मित्रों से चर्चा की।

उनके एक मित्र कानडे तभी मध्यप्रदेश रोडवेज में नौकरी करने लगे थे। उन्होंने कहा तुम तो रोडवेज में आ जाओ।

पप्पा ने जा कर रोडवेज में काम करने की इच्छा प्रकट की।

RTO विभाग तब कुछ दिन पहले ही रोडवेज के अंतर्गत आया था। उन्हें तुरंत दो महीने के लिये RTO Office में अल्पकालिक काम पर भेज दिया गया।

पप्पा के चाय पिलाने के शौक के कारण उनके वहाँ अपने से बड़ी उम्र के बहुत से दोस्त बन गये। ये मित्र उनके साथ सिनेमा देखने भी जाने लगे।

उन दो महीनों में घर की परिस्थिती सुधरती सी लगने लगी।

बाकी अगली बार…..

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