सतह के नीचे

जब हॉस्पिटल में काम करती थी, तब लोग आ कर मुझे अपनी निजी जिंदगी की जाने क्या क्या बातें बताते। मेरी रातों की नींद उड़ जाती। फिर लगता , कि ये तो शायद बताने लायक था, लेकिन इसके अलावा भी जाने क्या-क्या होगा हर एक की ज़िंदगी में, जो अब कभी भी किसी को भी नहीं बताया जाएगा। तभी कभी यह लिखा था…….

सतह के नीचे

गुंथे हुए हैं ताने बाने, उलझे हैं कितने धागे

जाने कितने लम्हें हैं, इन लम्हों के पीछे आगे 

 

गुजरे सालों के साये, हर दिन को दांतों में पकड़ें 

जाने कितने सपने हैं, अतीत के पंजों में जकड़े ।

 

जोश बहुत था ,कुछ धरती ,कुछ आसमान ने सोख लिया

बचा खुचा जो बाकी था, वह उम्र ने बढ़ कर रोक दिया ।

 

बीती ,झेली ,कही अनकही ,सब क्या कोई कह पाया,

जो कुछ बीता ,सब झेल लिया, मन जाने कैसे सह पाया।

 

मेरा किस्सा शुरू हुआ कब, और कहाँ तक पहुँचेगा,

दो लफ्ज़ों के बीच की आहें, कोई कैसे समझेगा ।

 

तुम्हें कहानी में रस है पर,मुझसे कहा ना जाएगा।

जख्म वो ताजा या धुंधला, अब फिर से सहा ना जाएगा।

 

तुम लाख दिखाओ हमदर्दी, पर दिल की मेरे मनाई है

वो चोटें अब क्या दिखलाऊँ, जो गहरे कहीं छुपाई हैं.

 

दरिया की रवानी बस उतनी तो नहीं, जितनी नज़रों ने दिखाई है,

मेरी कहानी बस उतनी तो नहीं, जितनी तुमको सुनाई है।

                                                                                    स्वाती

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