बिल्ली विश्वविद्यालय (13)

ये बिल्लियाँ ना जाने दुनियाँके किस कोने से,जाने कबइस देश में लाई गईं।यहीं जन्मी,पली,बढ़ीं,पीढ़ियों रहीं इंसानी घरों में।इन्होंने देखा ही नहींजंगल,मैदान,खुला आकाश!लेकिन पेड़ दिखते हीजाने कैसे जान लेती हैंकि कैसे चढ़ना है।रोज कटोरे में परोसा हुआ कॅट फूडखाने वाली बिल्लियाँदिन में कई बार,करती हैं नाखूनों पे धार,और मुंडेर पर बैठेपंछी का,कर लेती हैं पलक झपकते... Continue Reading →

बिल्ली विश्वविद्यालय (5)

अक्सर देखा है मैंने सामने किसी बिजली के तार पर,या खिड़की की मुंडेर पर बैठे कबूतर को अपलक तकती बिल्ली को। उस समय किसी महान योगी सी वो इतनी एकाग्रता से कबूतर समाधि में लीन होती है कि सारे संसार में सिर्फ वो और कबूतर बस, इतना ही बाकी रह जाता है। ये भी देखा... Continue Reading →

तट पर भी हैं तूफान बहुत

जब रुकना होगा सोचेंगे इंतजार में हैं अरमान बहुत। है अभी तो कश्ती लहरों पर है हम में अब भी जान बहुत। भंवरों से हम कब डरा किए उलझाता है इत्मीनान बहुत। तुम साहिल का नाम ना लो तट पर भी हैं तूफान बहुत। है कार-ए-जहाँ दराज़ अभी ठुकराए हैं फरमान बहुत। ना खुदा, नाखुदा कोई... Continue Reading →

मैनें देखा ही नहीं

मेरी खिड़की से बाहर जहाँ तक नजर जाती है दिखती हैं बस इमारतें खिड़कियाँ, और दरवाजे पानी की टंकियाँ और एंटिने इस तरह स्पर्धा करते से, लगता हैं मानों किसी  भीड़ भरे प्लेटफार्म पर गाड़ी पकड़ने एक दूसरे से धक्कामुक्की करते लोग हों। जब भी बाहर देखती हूँ तो  थोड़ा सा सिकुड़ा सा आसमान देख... Continue Reading →

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