बिल्ली की तरह मेरी
ज़िंदगियाँ जो होती सात
दो - चार तो मैं फिर से
जी लेती तुम्हारे साथ।
लेकिन एक आखिर की,
बस अपने लिए रखती
दुनियादारी वाले
झगड़ों में न फिर फंसती।
चलते -चलते शायद
किसी सफर में एकाकी
मिल जाता कोई तुम सा
तो कुछ पल रुक जाती।
कुछ देर साथ चल कर
हम राह बदल लेते।
बस एक किताब उसकी
जिस पर हो उसका नाम
और एक सुहानी सी
छोटी सी कहानी कोई
अपनी झोली में रख
ठंडे पीपल के तले
हम मिलते दिल से गले
और तोड़ सभी बंधन
कर देते खुद को रिहा।
फिर हाथ हिला कर मैं
एक नई दिशा चलती।
स्वाती
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