नदी के किनारे-किनारे शहर बसा था कभी
शहर के बीच अब एक बेचारी नदी रहती है।
नदी का मिज़ाज अब अपना लिया है सड़कों ने
नदी बेसुध सी पड़ी है और सड़कें बहतीं हैं।
नदी का शहर से ताल्लुक कोई रहा ही नहीं
सिर्फ बरसात में बहने की इजाज़त है इसे
किसी कैदी की तरह जकडी सी पड़ी है यूँ ही
अधमरी नदी के पानी की जरूरत है किसे।
बंद बोतलों में पानी है,नदी में मैला
ना कोई शंख-सीपियाँ रहीं किनारों पे
पनिहारिनो ने साथ कब का छोड़ दिया
बगुले शोकसभा मे खड़े कगारों पे।
सरसरा के उठेगी कभी ये केंचुली उतार
तोड़ सारे किनारे उफन के निकलेगी
हम संभल जाएँ वक्त रहते यही बेहतर
नतीजा आने वाली नस्लें वरना भुगतेंगीं।
स्वाती
यथार्थ की बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति😊
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Superb
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