जैसे ज़ीना चढ़ते चढ़ते बीच की सीढ़ी हो जाए गुम, जैसे कुछ भूला ना हो,पर याद आए सब थोड़ा कम। रोज का रस्ता हो कर भी जब कुछ ना लगे पहचाना सा, अपना ही चेहरा दर्पण में लगे बड़ा अनजाना सा। चेहरा जो आंखो के आगे, उस चेहरे को नाम ना हो, और जुबां पर नाम हो कोई,लेकिन उससे काम न हो। कभी कभी सब साफ दिखे और कभी कभी हो बत्ती गुल, आज और कल के बीच का जैसे टूटा जाए कोई पुल। पहले एक पल ना था खाली,अब है केवल खालीपन, जाने आने का भी कहीं पे,करता नहीं है अब तो मन सीधी साधी बातें भी अब लगती हैं उसे पहेली सी, बेटा-बेटी,नाती-पोते,सबके बीच अकेली सी। बड़ी परेशान अम्मा मेरी उलझन से है भरी भरी, देख रही हूं उसमें खुद को,मैं भी हूं कुछ डरी डरी। स्वाती
so perfectly expressed…
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Thank you
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