जेरूसलम डायरी 2

जेरूसलम डायरी २

A group of people standing in front of a building

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यहाँ जेरूसलम की पश्चिमी दीवार

के सहारे दुख से विलाप करते लोगों को

देख कर ये खयाल आता है कि

हर देश के हर शहर में

कोई एक जगह ऐसी ज़रूर होनी चाहिए

जहाँ खुलेआम,खुल कर रो सकें लोग।

जब बसाए जाते हैं शहर,गाँव,कस्बे

तो विचार किया जाता है

बगीचों, सिनेमा, नाट्यघरों

अस्पतालों, प्रार्थना स्थलों वगैरह का।

पर कोई नहीं सोचता कि

रोना, जो मनुष्य की पहिली और

शायद अंतिम महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति है

उसके लिए भी कहीं कोई स्थान हो,

जहाँ जी भर रो कर लोग

कर सकें खाली मन को हर उस विष से,

जिसकी कड़वाहट करती है ज़हरीला

मन और ज़हन को।

आँसू बन कर निकले सारा मैल

और धुल कर पाक हो जाएँ दिल।

जेरूसलम की इस पश्चिमी

दुख की दीवार के साए में,

दुनिया भर से आए लोग

रो रहें हैं किसी आदिम दुख पर

इस बात पर विश्वास करना

मुश्किल लगता है मुझे।

“कौन रोता है किसी और की खातिर ए दोस्त

सबको अपनी ही किसी बात पे रोना आया।”

अनगिनत इंसानों की इस दुनिया में

आँसुओं से भीगे चेहरे,

अपनी व्यथा कागज के पुर्ज़ों पर लिख कर

दीवार की दरारों में छिपाते

थरथराते हाथ,कहते हैं अपनी पीड़ा

एक खंडहर सी दीवार से।

A group of people standing in front of a building

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और सैकड़ों वर्षों से लगातार

बिना रुके, सुबह-दोपहर-शाम

सुन कर कहानियाँ

मनुष्य ह्रदय की कठोरता की

रोती रही है जेरूसलम की ये

पुरातन पत्थर की दीवार ।

                  स्वाती

              27.11.19

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