धीरे से एक आँख खोल कर कभी इधर देखती हूँ तो कभी दूसरी खोल कर उधर चारों ओर समाधिस्थ बुद्ध की प्रतिमाओं की तरह निश्चल, ध्यानमग्न बैठे हैं लोग। एक मैं ही हूँ इनमें शायद जिसे प्रकाश की कोई किरण दिखती ही नहीं। फिर आँख के एक कोने से दिखती है मुझे हलचल हल्की सी। सामने बैठी आचार्य मुझे देखता देख कर खेद से गर्दन हिलातीं हैं। मैं झेंप कर आंखें बंद करती हूँ और गर्दन झुका लेती हूँ। लेकिन उससे पहले दिख जाती है मुझे पड़ौस की एक जोड़ी अधमुंदी आँखों के नीचे बंद होठों पर दबी दबी सी हँसी। नहीं , राजा को नंगा कहने की हिम्मत उसमे भी नहीं, मुझमें भी नहीं। क्या जाने, खुल रहें हों बाकियों के ज्ञानचक्षु हो रहे हों उनके शरीर हल्के खुल रहे हों स्वर्ग के दरवाजे और मुक्त हो रही हों उनकी आत्माएं।
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