बाप रे बाप… २०

पप्पा की नौकरी फिर शुरू हो गई।

जब कभी ग्वालियर जाते, बाडे पर नाना से मुलाकात हो जाती।

पिता पुत्र इधर उधर की बातें करते। देवानंद की नई फिल्मों की चर्चा होती, चाय पीते और अपने अपने घर लौट जाते।

परिस्थितियों की वजह से पप्पा में इतना अधिक आत्मविश्वास आ गया था कि वे किसी की भी एक नहीं सुनते थे।

घर-बाहर की हर छोटी बड़ी समस्या अकेले अपने ही बलबूते पर ही निबटाने की वजह से उनके मन में, किसी दूसरे की भावनाओं की, या सलाहों की कोई कीमत ही नहीं रह गई थी। शीघ्र कोपी तो हमेशा से ही थे।

यदि कभी उनका कोई विरोध करता, तो इतनी ज़ोर से डाँट-डपट करते, कि मारे डर के ही अगला ठंडा हो जाता।

उस पर यदि फिर भी कोई उनसे बहस लगाने की कोशिश करता, तो एकदम हाथ झाड़ लेते, कि कर लो जो चाहो, पर फिर मेरा कोई संबंध नहीं।

बहनों में ना तो इतना अत्मविश्वास था, ना ही हिम्मत थी।

मालू आत्या बहुत खूबसूरत दिखा करती थी। वो बताती थीं कि एक बार रास्ते में किसी ने उन्हें छेड़ दिया। वह शिवाजी नाम का एक कुख्यात गुंडा था, जो ट्रक ड्रायवर था।

पप्पा को जब पता चला तो उन्होंने चलते ट्रक में घुस कर उसे बहुत मारा।

उसके बाद पप्पा से सभी काफी डरने लगे।

उनके कई मित्र मालू आत्या को बेहद पसंद करते थे। बचपन से उनका इनके घर आना जाना था, लेकिन किसी की भी पप्पा से इस बारे में बात करने की हिम्मत नहीं हुई।

मालू आत्या इंटर पास हो चुकी थी।

पप्पा की मावशी को उसकी शादी की चिंता सताने लगी थी।

नाना से तो शायद अब किसी को कोई उम्मीद ही बाकी नहीं थी।

मावशी ने मालू आत्या के लिए वर भी तलाश कर लिया।

अच्छे परिवार का इंडियन एयरलाइन्स में नौकरी करने वाला लड़का था।

वे कुछ दहेज चाहते थे। मावशी ने ही खुद सब बातचीत कर ली।

शादी में क्या दिया जाएगा, आदि सब कुछ मावशी ने ही तय किया।

दहेज, जेवर सहित शादी का सारा खर्चा वे ही करने वाली थीं, इसलिये पप्पा को कोई चिंता नहीं थी।

शादी को जब कुछ दिन ही बाकी थे, तभी अचानक मावशी की मृत्यु हो गई।

उनके भरोसे ही सब कुछ तय हुआ था।

उनकी मृत्यु इतनी अचानक हुई कि वे जाने से पहले पप्पा से कोई बात भी नहीं कर पाईं।

अपनी जमीन उन्होंने पहले ही पप्पा के नाम कर रखी थी, इसका पता बाद में चला। वो पप्पा ने कभी ली ही नहीं।

लेकिन उन्होंने शादी के लिए पैसों की क्या व्यवस्था की है, इसका पप्पा को कुछ पता नहीं था।

पप्पा की जेब में कुछ नहीं था, लेकिन अब पीछे हटना भी नामुमकिन था।

हमेशा की तरह ना तो उन्होंने नाना से इस बारे में कोई बात की, ना ही नाना ने कुछ पूछा।

वर पक्ष को उन्होनें वह सब करने का आश्वासन दिया, जो मावशी ने तय किया था।

वे लोग ग्वालियर के नहीं थे, और उन्हें यहाँ कुछ मालूम नहीं था।

इसलिये उन्होनें पप्पा को कुछ पैसे दिये और उनके लिये बँड आदि का बंदोबस्त करने को कहा।

पप्पा ने हर व्यक्ति को पैसे मिल जाएंगे का आश्वासन दिया, और शादी की व्यवस्था की।

नाना को उन्होंने उसी तरह शादी का निमंत्रण दिया, जिस तरह अन्य रिश्तेदारों और परिचितों को दिया था। साथ ही उन्हें अकेले ही आने की सूचना भी दी।

नाना ने उस पर कोई प्रतिक्रिया ही नहीं दी।

शादी में अकेले ही आए।

जब नाना कन्यादान करने वाले थे, तब पंडित ने उनकी पत्नी के बारे में पूछा।

उस पर नाना ने कहा “ गुज़र गई ” और शास्त्रों के अनुसार किसी विधुर व्यक्ति की तरह सुपारी को पत्नी के स्थान पर रख कर कन्यादान किया।

विवाह सम्पन्न होते ही वो वहाँ से चले गये।

विदा होते ही सारे लेनदार पैसे माँगने लगे। किसी को थोड़े पैसे, किसी को आश्वासन कर पप्पा ने वापस भेजा।

इस चक्कर में उन्होने वे पैसे भी खर्च कर दिये, जो वर पक्ष ने उन्हें बँड वगैरह के लिये दिये थे।

जब तक बँड वाला पैसे माँगने पहुँचा, तब तक इनके पास कुछ बाकी नहीं था। वह किसी भी वादे से राजी होने को तैयार नहीं था।

उसने धमकी दी, कि यदि तुरंत उसके पैसे नहीं मिले, तो वह जहाँ बारात ठहरी है, वहाँ पहुँच जाएगा, और जब तक उसके पैसे नहीं मिल जाते , रात दिन दुल्हे वालों के चारों ओर बँड बजाता रहेगा।

इतनी अद्भुत और चतुर धमकी काम ना करती तो ही आश्चर्य था।

पप्पा ने तुरंत कहीं से पैसे जुगाड़ कर सबसे पहले उसके पैसे चुकाए।

इस शादी के बाद पप्पा के कई महीने उधार चुकाने में गुजरे।

नाना को पप्पा के इस बर्ताव का शायद बहुत बुरा लगा होगा। उनकी पत्नी तो निश्चित रूप से बेहद अपमानित हुई होंगी।

लेकिन उन्होनें कुछ भी नहीं कहा।

 

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