बीए में प्रवेश लेते समय सबसे बड़ी समस्या यह थी, कि विषय क्या लिया जाए।
जैसे तैसे इंटर पास हो गये थे, लेकिन इस बात का एहसास था ,कि उन्हें एक भी विषय ठीक से नहीं आता।
गणित से तो हमेशा की दुश्मनी थी। नौकरी के साथ साथ विज्ञान असंभव था। इंटर में कॉमर्स का अनुभव ले चुके थे, जो जरा भी आशादायक नहीं था।
उस पर नौकरी भोपाल में थी और क्योंकि ग्वालियर में लोगों को जानते थे इसलिए बी.ए. ग्वालियर से करना चाहते थे।
तभी एक पुराने परिचित भांड सर मिल गये। वे खुद बड़े अच्छे कलाकार थे और PGVT कॉलेज में पढ़ाते थे।
PGVT में चित्रकला का नया विभाग खुला था , जिसके वे प्रमुख थे।
विभाग एकदम नया होने की वजह से विद्यार्थियों की संख्या बेहद कम थी। वे तो नया विद्यार्थी ही खोज रहे थे।
उन्होने सलाह दी कि तुम चित्रकला ले लो।
पप्पा ने उन्हें बताया कि मेरा उससे कभी कोई संबंध नहीं रहा।
तो वे कहने लगे कि कोई बात नहीं, उसमें कुछ मुश्किल नहीं है, मैं दो महीने में सब सिखा दूंगा।
पप्पा ने उनकी बात मान कर ड्रॉइंग विषय ले लिया।
परीक्षा से कुछ दिन पहले उनके घर चित्रकला सीखने पहुँचे।
उन्होने काफी कोशिश भी की सिखाने की।
परीक्षा में प्रॅक्टिकल भी था।
एक बेहद बूढे झुर्रियों वाले आदमी को ला कर सामने बैठा दिया गया।
उसकी तसवीर बनाना था।
नतीजा क्या होगा, ये जानने के लिए रिजल्ट आने की भी ज़रूरत नहीं थी।
पप्पा बड़ी शान से फेल हुए।
जब भांड सर के पास शिकायत करने पहुँचे तो वे बोले “ तुम्हें एक सीधी लकीर खींचना तक तो आता नहीं। फिर भी १०० में से ३२ मार्क्स मिल गये।
अब और क्या लोगे?”
पप्पा ने फिर विषय बदले। अब की बार इतिहास और राजनीति शास्त्र की बारी थी।
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भास्कर काका पप्पा के ममेरे भाई तो ही, साथ ही सबसे अच्छे दोस्त भी थे।
भास्कर केलकर के जीवन पर एक किताब अलग से लिखी जा सकती है।
बचपन में ही, पप्पा की माँ की तरह ही उनके पिता की मृत्यु भी तपेदिक से होने के बाद, अन्य रिश्तेदारों का उनके जीवन में हस्तक्षेप जब असहनीय हो गया, तो ८-१० वर्ष की आयु में वे घर से भाग निकले थे।
घर से निकले तो जेब में पच्चीस पैसे थे।
ग्वालियर, पप्पा के घर जाने का मन बना कर रेलवे स्टशन पर पहुँचे।
स्टेशन के पास ही एक ग्राऊंड था, जहाँ कुछ लड़के हॉकी खेल रहे थे।
ये देखने के लिए खड़े हो गये।
हॉकी का मॅच होना था, लेकिन एक टीम के पास एक खिलाड़ी कम पड़ रहा था।
अचानक किसी की नज़र बेहद उत्सुक्ता से देखते भास्कर पर पड़ी, और उसने पूछा
“खेलोगे क्या।”
और हॉकी हाथ में आते ही काका जम कर खेले। एक-दो गोल भी किये। उनका कप्तान एकदम खुश हो गया।
स्टेशन मास्टर का बेटा था। पास ही रहता था।
अपने घर ले जा कर उसने काका को खाना खिलाया, और किसी से बोल कर उन्हें ग्वालियर का मुफ्त टिकिट भी दिलवा दिया।
ग्वालियर तक काका ने अपने पच्चीस पैसे बचाए रखे।
स्टेशन पर उन पैसों से तांगा लिया, और बड़े ठाठ से अपनी बुआ के घर पहुँचे।
उस उम्र और परिस्थती में भी शायद वे अपनी गरिमा बनाए रखना चाहते थे।
आत्या यानि पप्पा की आई जो समझना था वो समझी, और सबसे पहले दर्जी बुलवा कर उनके लिए नये कपड़े बनवाए गये।
जहाँ हर बार कम नम्बर मिलने पर, या फेल होने पर पप्पा विषय बदल लेते, वहीं भास्कर काका का मानना था, कि छोटी-मोटी असफलताएँ उन्हें अपने पथ से नहीं डिगा सकती।
उन्हें इस बात का बेहद गर्व था कि, उन्होने दसवी में पहली बार जो विषय लिये थे, यानि गणित और विज्ञान, वही उन्होनें अंत तक रखे।
भले ही उन्हें मॅट्रिक पास करने में पूरे सात साल लगे। लेकिन जब वे पास हुए तब गणित और विज्ञान के साथ ही।
इस दौरान उन्होनें अलग-अलग शहरों में अलग-अलग प्रकार की सत्रह नौकरियाँ की। जिनमें फॉरेस्ट गार्ड से लेकर ना जाने क्या-क्या था।
सबसे मज़े की बात तो यह है, कि मॅट्रिक फेल होने के बावजूद भी उन्हें शिक्षक की नौकरी मिल गई।
जब खुद पढ़ाने लगे, तब विषय उनकी खुद की भी समझ में आने लगे। उसके बाद वे मॅट्रिक भी पास हुए, और फिर ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन भी किया।
अंत में उन्होनें शिक्षकी पेशा ही अपनाया।
उनके स्वभाव में भी पप्पा की तरह ही दबंगाई थी।
किसी रिश्तेदार के यहाँ झाँसी में रहते थे।
घर के सामने ही एक स्मग्लर रहता था। +वह बार बार इन्हें अपने साथ काम करने का आग्रह करता, ये बार बार मना करते। वो फिर भी नहीं मानता। दिखते ही पूछ लेता।
काका को वो आदमी ही पसंद नहीं था। एक दिन इतना चिढ़ गये, कि जा कर उसकी गाड़ी के चारो पहियों की हवा निकाल दी।
जब उसने पकड़ कर डाँट लगाई तो बोले, कि तुम्हें ही सबक सिखाने के लिए हवा निकाली थी। आईंदा मुझसे बात मत करना।
वह स्मग्लर उनकी इस ढीटता से पहले ही प्रभावित था।
बोला “ बेटा इस उम्र में ये तेवर हैं , तुम तो बहुत आगे जाओगे।”
पप्पा और भास्कर काका का एक दूसरे पर बहुत प्रेम था।
जब भी वे दोनों मिलते, तो पुरानी बातें याद कर कर के बेतहाशा ठहाके लगाते रहते।
कई बार तो काका पप्पा को टोकते, और कहते कि ये बातें बच्चों के सामने मत करो।
अपने बारे में क्या सोचेंगे?
ऐसा ही एक किस्सा मुझे बहुत पसंद है। जो कई बार सुन कर भी मज़ा आता है।
काका एक बार भोपाल आए।
पप्पा तब १९-२० साल के रहे होंगे, और काका उनसे कुछ बड़े।
काका को तब कोई नई नौकरी लगी थी। किसी कारणवश उन्हें उज्जैन जाना था।
पप्पा भी साथ चल पड़े।
उज्जैन पहुँचने तक काफी रात हो गई थी।
दोनों ने सोचा कि शराब पी जाए। लेकिन इतनी रात को शराब कहाँ मिलती।
काका बोले “ पुल के पास एक देशी शराब की दुकान है।”
इन्होंने वहाँ से एक बोतल खरीदी और वहीं पुल पर बैठ कर पीने लगे ।
पप्पा कहते हैं
“उस रात इतना बढ़िया लग रहा था। रात की ठंडी हवा, चारों ओर शांती...
हम दोनों इतने मज़े में थे। उस क्षण ना कोई चिंता थी, ना ज़िम्मेदारी, ना ही किसी परेशानी का एहसास ही था। दोनों को ही रोकने टोकने वाला भी कोई नहीं था। इतने चिंतारहित और मुक्त क्षण ज़िंदगी में बहुत कम ही आते हैं।
ऐसा मज़ा सिर्फ उस उम्र में ही आ सकता है।”
“बोतल खत्म हुई, तब तक दोनों न जाने क्या क्या बातें कर हँस-हँस के बेहाल हो गये थे। लेकिन यथार्थ और अपनी फटेहाली के प्रति हम नशे की उस अवस्था में भी सजग थे।
खाली बोतल हमनें बड़े एहतियात से पुल के नीचे छुपाई, और सुबह ईमानदारी से जा कर वह बोतल निकाल कर, दुकानदार को वापस की और एक रुपया रिफण्ड लिया।”
पप्पा और भास्कर काका का आपसी प्रेम अद्भुत था। एक दूसरे से ज्यादा महत्व उन्होने कभी दुनियाँ की किसी चीज़ को नहीं दिया। लेकिन इस प्रेम का कभी जरा भी दिखावा भी नहीं था।
पप्पा की मौसी ,जो भास्कर काका की बूआ भी थी, वे विधवा थीं। उन्हें पप्पा से विशेष लगाव था।
माँ की मृत्यु के बाद तो वे इन तीनों भाई बहनों को अपनी जिम्मेदारी मानती थीं।
उनकी किसी गाँव में १२० बीघा जमीन थी। उस जमीन पर उगने वाली घाँस बेच कर भी उनका आराम से गुजारा हो जाता था।
पप्पा और भास्कर काका अक्सर उनके यहाँ जाया करते थे।
उनकी मृत्यु के पश्चात, वे अपनी वसीयत में अपनी सारी जमीन-जायदाद पप्पा के नाम कर गईं।
भास्कर काका को जब पता चला, तो उन्हें बहुत बुरा लगा। बुरा उन्हें जायदाद ना मिलने का नही लगा था।
वे बोले, कि मैं भी तो उनका भांजा हूँ, लेकिन उन्हें मेरा खयाल भी नहीं आया।
यह सुन कर पप्पा को भी बुरा लगा। उन्हें लगा कि मावशी को ऐसा नहीं करना चाहिए था। पप्पा ने कहा कि मुझे कुछ नहीं चाहिए। तुम्हारी इच्छा हो तो तुम ले लो।
काका बोले “ लेकिन जब उन्होने खुद मुझे कुछ नहीं दिया तो मैं कैसे लूँ?
तो काका ने कुछ भी लेने से इंकार कर दिया, और उन्हें बुरा लगेगा, यह सोच कर पप्पा ने खुद भी वह जमीन नहीं ली।
और इस तरह दोनों भाइयों ने इतनी सहजता से, इतनी फटेहाली में भी हाथ आई संपत्ती ठुकरा दी।
बाद में मौसी की उस जमीन और संपत्ती का क्या हुआ, ये जानने की भी दोनों में से किसी को उत्सुक्ता नहीं थी।
इस बात को जीवन में कभी भी दोनों ने ही अपनी मूर्खता या अव्यवहारिकता नहीं समझा। उनके हिसाब से वही सही निर्णय था।
शायद इसीलिए अंतिम समय तक दोनों घनिष्ट मित्र रहे।
बाकी अगली बार...
Bhaskar kaka character very well written. Agdi dolyanpudhe yetayat.very nice.
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Adbhud….
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