बाप रे बाप…९

नाना जिस अस्पताल में नौकरी करते थे, वहाँ एक बार डॉ. कोल्हे नामक आरोग्य सचिव दौरे पर पहुँचे।

वे पहुँचते ही बहुत नाराज हो गये ,क्योंकि नाना उनका स्वागत करने बाहर नहीं आए थे। अस्पताल के भीतर पहुँचे, तो देखा वे आराम से OPD में बैठे में मरीज देख रहे थे। बाहर भीड़ लगी थी,लेकिन अस्पताल के किसी भी वॉर्ड में एक भी मरीज भरती नहीं था।

जब उन्होंने इसकी वजह पूछी, तो नाना ने बोले

“हम तो इलाज ही ऐसा करते हैं कि मरीज घर में ही ठीक हो जाता है, फिर बिना वजह भर्ती करने की क्या जरूरत है?”

जब डॉ. कोल्हे ने उनका ध्यान इस ओर दिलवाया कि अस्पताल काफी गंदा भी है ,ठीक से साफ सफाई नहीं हुई है, तो नाना उन्हें ही दोष देने लगे, कि उन्होंने इतने निकम्मे लोग भर रखे हैं कि कोई खुद कुछ काम ही नहीं करता। अब बार-बार किसी से क्या कहा जाए।

अब वे अपना काम करें या लोगों से काम करवाते रहें।

कुछ देर यूँ ही बहस चलती रही। डॉ. कोल्हे नाराज हो कर बोले कि जब आप नियम से कुछ काम ही नहीं करना चाहते, हर जगह अपनी ही मर्जी चलाते हैं ,तो सरकारी नौकरी में आए ही क्यों?

उस पर नाना बड़े मजे में बोले

“यहाँ नौकरी में दिलचस्पी किसे है? भई हम तो ये देखना चाहते थे, कि सरकार कैसे चलती है। लेकिन यहाँ तो सब बड़ी पोलम पोल है साहब।”

उनके इस वाक्य ने आग में घी का काम किया । कोल्हे साहब बेहद गुस्सा हो गये। उन्होंने एक बड़ी सी रिपोर्ट लिख कर नाना की शिकायत आरोग्य मंत्रालय को भेजी।

नाना के वे मित्र जिन्होंने उन्हें नौकरी दिलवाई थी, इस सारे नाटक से बहुत नाराज हुए। उन्होंने नाना को बहुत बुरा भला कहा।

बोले ” दोस्ती की खातिर मैंने ये नौकरी दिलवा कर एहसान किया था ,वरना तुम्हारे जैसे सनकी आदमी को कौन नौकरी देता? तुमने तो मेरी बेइज्जती करवा दी … वगैरह-वगैरह।”

नाना भी चिढ़ गये।

बोले, “तुम दोस्ती में एहसान की बात करते हो, तो मुझे तुम्हारा एहसान ही नहीं होना।” उन्होंने नौकरी से इस्तीफा दे दिया, जो तुरंत मंजूर हो गया।

नाना ने फिर ग्वालियर आ कर अपना अस्पताल चालू कर दिया।

दो महीने बाद पप्पा की टेंपररी नौकरी छूट गई। आमदनी फिर कम हो गई लेकिन जरूरतें जैसी की वैसी थीं।

एक टेंपररी नौकरी करने के बाद पप्पा को एहसास हुआ कि नौकरी में बहुत सिक्योरिटी है। हर महीने निश्चित रकम हाथ आती है। एक टिकाऊ नौकरी की कल्पना बहुत आकर्षक लगने लगी।

तब उनकी उम्र थी सोलह साल।

सरकारी नौकरी के लिए वयस्क होना, यानि अठारह साल का होना ज़रूरी था।

पर ऐसी अड़चनों से पप्पा कहाँ रुकते।

उन्होंने उम्र १८ पूर्ण का एक झूठा सर्टिफिकेट बनवाया, और बाकायदा नौकरी ढूँढना शुरू कर दिया।

एक बार एक मलेरिया इंस्पेक्टर की पोस्ट के लिये उन्होंने अर्जी भेजी।

साक्षात्कार के लिये बुलावा आया ।

उनसे पूछा गया कि आप ये काम क्यों करना चाहते हैं ।

पप्पा ने बड़ी गंभीरता से बताया कि मेरे पिता डॉक्टर हैं । मैं डॉक्टर तो नहीं बन पाया, पर मैंने सोचा कि यदि मलेरिया इंस्पॅक्टर बन जाऊँ तो किसी ना किसी तरह मेरा भी मेडिकल फील्ड से संपर्क रहेगा।

किसी ने पिता का नाम पूछा।

पप्पा की बदकिस्मती से इंटरव्य़ू लेने वालों में वही डॉ. कोल्हे भी एक थे, जिनका नाना ने अपमान किया था।

और वे नाना को बिल्कुल भी नहीं भूले थे।

वे निसंकोच बोले

“यदि तुम उन डॉक्टर अभ्यंकर के बेटे हो, तो संभावना बहुत अधिक है ,कि तुम भी उनकी तरह ही पागल और सनकी होगे। ऐसे लोगों को लेने का खतरा उठाने की हमारी कोई इच्छा नहीं है।”

बड़े बे-आबरू हो कर वहाँ से पप्पा निकले।

आखिर फिर उन्होंने नाना के परिचित गृह सचिव से बात की और उम्र कम होने पर भी उन्हें उनके झूठे जन्म प्रमाणपत्र के सहारे RTO Office में परमनेंट नौकरी मिल गई।

परेशानी बस इतनी ही थी, कि उनकी नियुक्ति भोपाल में हो गई थी।

एक तो भोपाल में वे किसी को जानते नहीं थे।

दूसरे उन्हें पढ़ाई पूरी करने की, यानी कम से कम ग्रॅजुएशन तो करने की इच्छा थी ही। चाहे वो किसी भी विषय में क्यों ना हो। क्योंकि इंटर पास हो गये थे।

किसी परिचित शिक्षक ने सलाह दी कि ड्रॉइंग विषय ले लो। वे शिक्षक स्वयं चित्रकला ही सिखाते थे।

वे बोले मैं सिखा भी दूँगा और पास होने में मदद भी करूँगा।

तो अब पप्पा ने, जिन्हें एक सीधी लकीर खींचना भी नहीं आता, चित्रकला विषय के साथ BA में प्रवेश लिया, और नौकरी करने भोपाल चल पड़े।

 

pa

 

 

 

भोपाल में रहने का कोई ठिकाना न था। पप्पा ने सोचा कुछ दिन किसी होटल में रह कर किराए का मकान ढूँढ लेंगे। उसके बाद तो सरकारी मकान मिल ही जाएगा।

सरकारी नौकरी का ये भी एक बड़ा फायदा था।

भोपाल स्टेशन पर उतरे तो भोपाल के बारे में कोई अंदाजा ही नहीं था।

सामने ही देवास मोटर्स की कुछ बसें खड़ी थीं। पास ही कुछ लोग खड़े गप्पें लगा रहे थे। सोचा उनसे ही किसी ठीक-ठाक हॉटल का पता चल जाएगा। सात आठ लोग उनके चारों ओर इकट्ठे हो गये।

वे सब देवास मोटर्स के ही ड्रायवर, क्लीनर वगैरह थे। पप्पा की उम्र उस समय सत्रह से भी कम थी और बड़ी स्टाइल में रहा करते थे।

पप्पा ने जब उनसे किसी होटल का पता पूछा, तो उन्होंने भी पूछताछ शुरू की।

कौन हो, क्या काम करते हो? वगैरह।

पप्पा ने बताया कि RTO ऑफिस में नौकरी लगी है। अभी मकान नहीं मिला है, तब तक रहने की जगह चाहिए।

ट्राँस्पोर्ट वाले होने की वजह से, उन्हें RTO ऑफिस में नई नोकरी लगे पप्पा एकदम अपने से लगने लगे।

एक व्यक्ति कहने लगा

“अरे बाबू जी आप कहाँ हॉटल ढूँढने के चक्कर में पड़ते हो। देवास मोटर्स का एक गॅरेज है, हम सब वहीं रहते हैं, वहीं एक कमरा भी है। आपको मकान मिलने तक आप वहीं रह लो।”

ये बातें चल ही रहीं थीं कि उनके मॅनेजर श्री देवधर भी आ गये।

पप्पा से मिल कर बड़े खुश हुए।

कहने लगे “पुराने भोपाल में देवास मोटर्स का नूरमहल नाम का एक बड़ा सा गॅरेज है। हमारे सारे कर्मचारी वहीं रहते हैं। वहाँ एक कमरा खाली है। अच्छा कमरा है। उसमें हमारे कुछ खास लोग ही रुकते हैं। हम आपसे किराया विराया कुछ नहीं लेंगे ,बस आप जरा हमारे लोगों पर ध्यान रखना।”

तो इस तरह पप्पा स्टेशन से सीधे नूरमहल पहुँच गये।

बाकी अगली बार…..

One thought on “बाप रे बाप…९

Add yours

Leave a comment

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

Website Built with WordPress.com.

Up ↑